Vindhyachal : प्रलय के बाद भी विंध्य क्षेत्र रहेगा सुरक्षित? जानिए रोचक तथ्य व मान्यताओं के बारे में

मिर्ज़ापुर, डिजिटल डेस्क : मान्यता के अनुसार विंध्य क्षेत्र धरती का एकमात्र ऐसा स्थान हैं जो सृष्टि के सृजन के साथ ही मौजूद था और प्रलय के बाद भी विंध्य क्षेत्र सुरक्षित रहेगा, ये क्षेत्र का सनातन संस्कृति में विशेष स्थान उल्लिखित है।
यहाँ जप-तप साधना का विशेष महत्व है यही कारण हैं कि यहाँ ऋषि मुनियों और साधकों का हमेशा से जमावड़ा रहा है। विंध्य क्षेत्र के बारे में मान्यता है कि यहां किए गए जप के 1 माले पर विश्व में कहीं भी किए गए 100 माले का फल मिलता है यही कारण है कि सिद्धियों और ज्ञान की प्राप्ति के लिए विंध्याचल पुरातन काल से ही सर्वोपरि माना गया है आइए जानते हैं विंध्याचल किन प्रमुख ऋषियों और साधकों के तपोस्थली रही थी।
माना जाता है कि विंध्याचल पर्वत का अहंकार बढ़ा तो उसने अपने कद में वृद्धि की यह बढ़ोतरी इतनी होती गई कि उसने स्वयं को सुमेरु पर्वत से भी ऊंचा कर लिया इसी क्रम में उसने दक्षिण दिशा से आने वाली सूर्य की रोशनी भी रोक दी। जिससे प्राणियों में हाहाकार मच गया प्राणियों के कष्ट देख ऋषि अगस्त्य जो कि विंध्याचल पर्वत के गुरु थे विंध्याचल पर्वत के समक्ष गए, विंध्याचल पर्वत ने गुरु चरणों में प्रणाम कर उनसे आने का कारण पूछा, जिस पर ऋषि अगस्त्य ने विंध्याचल पर्वत को आदेश दिया कि उन्हें दक्षिण भारत में सनातन संस्कृति व धर्म के प्रसार के लिए जाना है जब तक वो वापस न लौट आए तब तक विंध्याचल पर्वत झुका ही रहे गुरु के आदेश पाकर विंध्याचल पर्वत आज भी दंडवत के आसन में झुका हुआ है।
भौगोलिक दृष्टि से भी देखा जाए तो विंध्याचल पर्वत पार करके ही दक्षिण भारत व उत्तर भारत की यात्रा की जाती है और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो दक्षिण भारत में धार्मिक साहित्य में ऋषि अगस्त का विशेष उल्लेख भी मिलता है। अन्य कई धर्म ग्रंथों में भी उल्लेख है कि ऋषि अगस्त्य ने धर्म और ज्ञान के प्रसार के लिए अपनी यात्रा की शुरुआत विंध्याचल क्षेत्र से ही की थी।
शरभंग ऋषि जिनका उल्लेख रामायण में हैं जिनसे मिलने स्वयं भगवान राम उनके आश्रम पहुंचे थे उन्होंने विंध्य धाम क्षेत्र में रह कर तप व साधना की थी। कहते हैं जब भगवान राम के आश्रम आने की खबर शरभंग ऋषि को मिली तो उन्होंने स्वर्ग जाने के लिए आए इंद्र के रथ को भी जाने दिया था।
शिव के रुद्रावतार गोरखनाथ के गुरु मच्छिंद्रनाथ या मत्स्येंद्रनाथ ने भी विंध्य क्षेत्र में साधना की थी मछिंद्रनाथ हिंदू धर्म के हठयोग के प्रमुख पुस्तक कौलजणाननिर्णय के रचयिता थे इसके अलावा नाथ संप्रदाय की स्थापना में भी इन का महत्वपूर्ण योगदान था मच्छिंद्रनाथ ने अष्टभुजा मंदिर के समीप भैरव कुंड के उत्तरी मार्ग पर स्थित एक खोह नुमा स्थान पर साधना की थी। उस स्थान को अब मछिंद्र कुंड के नाम से जाना जाता है। तीन तरफ पहाड़ से घिरे इस स्थान पर एक छोटा सा कुंड है जिसमें वर्ष भर प्राकृतिक स्रोत से जल प्रवाह बना रहता है। इस प्रवाह का उद्गम आज भी ज्ञात नहीं है। कहते हैं कि इस जल में औषधीय गुण हैं जिससे कफ, पित्त, वात सभी दोषों का निवारण होता है।
अष्टभुजा मंदिर के समीप स्थित भैरव-भैरवी मंदिर है जिसे भैरव कुंड के नाम से भी जानते हैं । वहीं माँ कपालीनि का प्रसिद्ध मंदिर हैं।
इस स्थान पर अघोर पंथ के प्रमुख संत किनाराम ने साधना की थी, उनके बाद उनके शिष्य अवधूत राम ने भी विन्ध्याचल क्षेत्र में रह कर साधना की। माँ कपालीनि के मंदिर में देवी प्रतिमा के साथ दो नरमुंड रखे हैं जिनकी पूजा की जाती हैं।
विंध्य धाम से 35 किमी पाश्चिम की ओर मांडा नामक स्थान है। इसका नाम मांडव्य ऋषि के नाम पर पड़ा हैं। मांडव्य ऋषि ने विन्ध्याचल पर्वत पर आश्रम बनाकर साधना की थी। उन्होंने ने अपना आश्रम कर्णावती नदी के उद्गम स्थल पर बनाया था।