Muharram 2021: कल मनाया जाएगा आंसुओं का त्यौहार मुहर्रम, जानें मुहर्रम में क्यों मनाते हैं मातम

मुहर्रम का महीना 11 अगस्त से शुरू हो चुका है, मुहर्रम का दसवां दिन आशूरा होता है। इस वर्ष 20 अगस्त यानी कि शुक्रवार को मुहर्रम मनाया जाएगा। मोहर्रम ऐसा पर्व है जिसमें शिया और सुन्नी दोनों मुस्लिम समुदाय अपने देवता हुसैन के लिए ज्यादा से ज्यादा आंसू बहाने की कोशिश करते है क्योंकि उनके लिए पुण्य का काम होता है।
मुहर्रम अंतिम पैगंबर हज़रत मुहम्मद साहब के पोते इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत की याद में मनाया जाता है। ऐसे में दुनिया भर में मुसलमान मुहर्रम की 9 और 10 तारीख को रोज़ा रखते हैं और मस्जिदों, घरों में इबादत करते हैं। इस पर्व को शिया और सुन्नी दोनों मुस्लिम समुदाय के लोग अपने-अपने तरीके से मनाते हैं। मुहर्रम बेहद गम भरा महीना होता है। मुहर्रम पर ताजिया और जुलूस भी निकाले जाते है लेकिन इस साल कोरोना की संभावित तीसरी लहर को देखते हुए मुहर्रम पर ताजिया और जुलूस निकालने की अनुमति नहीं दी गई है, लेकिन घरों के अंदर ताजिया निकाले जा सकते हैं।
जानें मुहर्रम में क्यों मनाते हैं मातम
1400 साल पहले तारीख-ए-इस्लाम में कर्बला की जंग हुई थी जिसमें इंसान के लिए और जुर्म के खिलाफ लड़ाई हुई। इस जंग में पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन और उनके 72 साथी शहीद हो गए। मुआविया नाम के शासक के निधन के बाद उसका राजपाट उनके बेटे यजीद को मिली। जीद इस्लाम धर्म का खलीफा बन बैठा। वह अपने वर्चस्व को पूरे अरब में फैलाना चाहता था, लेकिन उसके सामने पैगंबर मुहम्मद के खानदान का इकलौता चिराग इमाम हुसैन बड़ी चुनौती थी। कर्बला में सन् 61 हिजरी से यजीद ने अत्याचार बढ़ा दिया तो बादशाह इमाम हुसैन अपने परिवार और साथियों के साथ मदीना से इराक के शहर कुफा जाने लगे, लेकिन रास्ते में यजीद की फौज ने कर्बला के रेगिस्तान पर इमाम हुसैन के काफिले को रोक लिया।
वह मुहर्रम का दिन था, जब हुसैन का काफिला कर्बला में ठहरा। वहां पानी का एकमात्र स्त्रोत फरात नदी थी, जिस पर यजीद की फौज ने 6 मुहर्रम से हुसैन के काफिले पर पानी पीने पर लगा दी। इसके बाद भी इमाम हुसैन झुके नहीं। आखिर में जंग छिड़ ही गई। इतिहास के अनुसार, 80000 की फौज का हुसैन के 72 बहादुरों ने जमकर मुकाबला किया।
उन्होंने अपने नाना और पिता के सिखाए हुए सदाचार, उच्च विचार, अध्यात्म और अल्लाह से बेपनाह मुहब्बत में प्यास, दर्द, भूख और पीड़ा सब पर विजय प्राप्त की। दसवें मुहर्रम के दिन तक हुसैन अपने भाइयों और अपने साथियों के शवों को दफनाते रहे और आखिर में खुद अकेले युद्ध किया फिर भी दुश्मन उन्हें मार नहीं सका। आखिर में अस्र की नमाज के वक्त जब इमाम हुसैन खुदा का सजदा कर रहे थे, तब एक यजीदी को लगा की शायद यही सही मौका है हुसैन को मारने का। फिर, उसने धोखे से हुसैन को शहीद कर दिया, लेकिन इमाम हुसैन तो मर कर भी जिंदा रहे। इस्लाम में उनकी मृत्यु अमर हो गई।